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इंटरनेट ऑफ बींग्स (Internet of Beings) (लघुकथा)

इंटरनेट ऑफ बींग्स (Internet of Beings) (लघुकथा)

 

उसका नाम सानि था। सरगम के पहले, मध्यम और आखिरी स्वरों पर उसके संगीतकार पिता ने यह अजीबोगरीब नाम रखा था। लेकिन वह खुद को ज़िन्दगी कहती थी। साथ ही यह भी कहती थी, ज़िन्दगी गाने के लिए नहीं है, गुनगुनाने के लिए है और गुनगुनाने के लिए सरगम के तीन स्वर काफी हैं।

 

मैं तकनीक का व्यक्ति हूँ, इंटरनेट ऑफ थिंग्स पर काम करता हूँ। वह कहती थी कि इंटरनेट ऑफ थिंग्स की बजाय इंटरनेट ऑफ बींग्स पर दुनिया काम क्यों नहीं करती! कहती थी, काश! ऐसी एक चिप होती जो रोज़ रात को ठीक ग्यारह बजे उसके शरीर को शिथिल कर देती, दिमाग को शांत और आँखों में नींद भर देती।

 

प्रेमिका तो नहीं, वह केवल एक दोस्त थी। सच कहूं तो मुझे बहुत पसन्द थी, एक दिन मैंने उससे शादी का प्रस्ताव भी रखा, हँसते हुए बोली, "ज़िन्दगी को छूना नहीं चाहिए, ज़िन्दगी को अपने इंटरनेट की तरह ही मानो जीने का अर्थ ही आभासी होना है।"

 

एक दिन तेज़ बारिश में भीगी हुई वह मेरे घर आई। कुछ सामान लेने गई थी कि बारिश हो गई। मैंने उसे पहनने को अपने कपड़े दिए और कमरे से बाहर चला गया। उसने दरवाज़ा बंद किया। मैं घर पर अकेला ही था। दिल का दानव दिमाग तक पहुंचा और मैंने दरवाज़े के की-होल से उसे कपड़े बदलते हुए भरपूर देखा। देखा क्या, बस अपनी स्मृति में हमेशा के लिए बसा लिया।

 

वह बेखबर बाहर आई, हम दोनों के लिए चाय बनाई और हम पीते रहे। वह चाय पीती रही और मैं न जाने क्या?

 

उस बात को लगभग एक साल गुज़र गया है। आज शाम उसने खुद्कुशी कर ली।

 

देर रात मैं उसके घर गया तो पता चला कि किसी ने उसके कपड़े बदलने का वीडियो बना लिया था और उसे इंटरनेट की किसी वेबसाईट पर अपलोड कर दिया। सुनते ही मुझे याद आया कि उस दिन मेरा लैपटॉप भी तो ऑन ही था, इंटरनेट भी चल रहा था और लैपटॉप का कैमरा भी हाँ-हाँ कैमरा भी तो ऑन था।  शायद उसी वक्त मेरी तरह ही किसी और ने भी इंटरनेट के जरिये... मेरे लैपटॉप को हैक कर... उसे अपनी स्थायी मेमोरी में बसा लिया था। लेकिन सिर्फ बसाया ही नहीं, उजाड़ भी दिया उस उज्जड़ ने।

 

दिमागी हलचल पैरों तक पहुँची, मैं उसके घर से भागा। अपने घर पहुंच कर अपने कमरे में गया। लैपटॉप आज भी ऑन था। उसे बंद किया तो कुछ चैन सा मिला। मैं अपने कमरे से निकल आया और दरवाज़ा बंद कर दिया। डाईनिंग रूम में जाकर बैठ गया और आँखें बंद कर लीं। इस तरह जैसे ज़िन्दगी को कभी देखा ही नहीं हो। आज भी घर में मैं अकेला था। रात के ग्यारह बज रहे थे। मेरा पूरा शरीर शिथिल होने लगा, आँखें चाह कर भी खोल नहीं पा रहा था, जैसे डार्क वेब के किसी हैकर ने आँखें हर ली हों।

 

और उसी वक्त पता नहीं कैसे पूरा डाईनिंग रूम चाय की खूश्बू से महक उठा!
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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1 Comments

आपकी कहानी अधूरी है सर।

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